देश में पिछले हफ्ते बहुत से लोगों ने राहत की सांस ली, जब एक साल से जेल में बंद तीन छात्र कार्यकर्ताओं नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और आसिफ इकबाल तन्हा को दिल्ली हाईकोर्ट से जमानत मिली और वे जेल से बाहर आए। इससे भी अधिक राहत अदालत की उस टिप्पणी से मिली, जिसमें लोकतंत्र में अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए प्रदर्शन के अधिकार को जायज ठहराया गया है। शायर फैज़ अहमद फैज़ के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि बीमार को बेवजह करार आ गया। आप सब जानते ही हैं कि हमारे देश के लिए पिछले एक-डेढ़ साल कितने कठिन रहे हैं। कोरोना के कारण आदमी की जान पर बन आई है। और ऐसे में सरकार को मनमाने फैसले लेने में आसानी भी हो रही है, क्योंकि अब न पहले की तरह लोग एक जगह इकट्ठा हो सकते हैं, न विरोध-प्रदर्शन कर सकते हैं। किसान आंदोलन जरूर अपवाद की तरह सात महीनों से जारी है, लेकिन उसमें भी सरकार का अड़ियल रवैया भारी ही पड़ रहा है। मौजूदा सरकार पहले भी कई ऐसे फैसले लेते रही है, जिनसे लोकतंत्र की भावनाओं को धक्का पहुंचा। नागरिकता संशोधन कानून और जम्मू-कश्मीर से विशेषाधिकार वापस लेना ऐसे ही फैसले थे। इन फैसलों की कड़वाहट पर नीम तब चढ जाती है, जब इनका विरोध करना राजद्रोह मान लिया जाता है। हालांकि अब अदालत की टिप्पणी इस कड़वाहट को कम करती नजर आ रही है। तो आज आईने की नजर से पड़ताल करेंगे कि आखिर यूएपीए जैसे कानूनों की लोकतंत्र में कितनी जरूरत है और क्या ये सरकार के लिए अपने विरोधियों को दबाने का एक औजार मात्र है। साथ ही ये भी समझेंगे कि क्या जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के बाद अब सरकार वहां लोकतंत्र दिखाने की कोशिश कर रही है। लोकतंत्र पर सरकार का खेल तो वक्त आने पर पता चल ही जाएगा, लेकिन उससे पहले महंगाई का खेल लोगों को कैसे बुरे दिन दिखा रहा है, आईने की इस पर भी नजर होगी। तो घूमता हुआ आईना के आज के एपिसोड की शुरुआत करते हैं अदालत की महत्वपूर्ण टिप्पणी से..